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कौमों को लड़ाना हमारे नेताओं का काम नहीं होना चाहिए। यह काम तो अंग्रेजों का था। अंग्रेजों ने हमारी संस्कृति, देवी-देवता, जात-पात सबको हथियार बनाकर उनसे हमें ही काटा और काटते चले गए। लेकिन यह सिलसिला अब भी जारी है। क्यों? सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को यही सवाल उठाया।
ईश निंदा की श्रेणी में आने वाला बयान देने वाली नूपुर शर्मा को बुरी तरह फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा कि जो कौमी आग लगी, जो नफरत का माहौल बना, वह सब नूपुर शर्मा के बयान का ही दुष्परिणाम है। कोर्ट ने हमारी व्यवस्था और शासन की लापरवाही पर भी हैरत जताई। कहा कि यह कितना अन्यायपूर्ण और असहनीय है कि नूपुर शर्मा ने जिसके खिलाफ शिकायत की, उसे तो गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन बयान देने वाली नूपुर को गिरफ्तार नहीं किया।
दरअसल, सारा मामला सत्ता के साथ और उसके खिलाफ होने से बनता और बिगड़ता है। वैसे भी पिछले कई सालों से तीसरा पक्ष जिसे आप निष्पक्ष या तटस्थ कह सकते हैं, उसका तो पूरी तरह लोप ही हो गया है। अब या तो आप किसी के पक्ष में हो या विपक्ष में। तटस्थता नाम का शब्द तो खारिज कर दिया गया है। खैर, नूपुर शर्मा को क्यों बचाया गया, इसका जवाब तो व्यवस्था कोर्ट को देगी ही, इस बीच अगर उस मौलाना की बात न करें जो राष्ट्रीय चैनल पर बैठकर नूपुर को भड़का रहा था, तो बात अधूरी रह जाएगी।
बहस दरअसल, ज्ञानवापी पर हो रही थी। मौलाना बार-बार शिवलिंग को फव्वारा बता रहा था। वह फव्वारा जिसके ऊपर वर्षों से नमाज पढ़ने वाले वुजू करते आ रहे हैं। वुजू कहते हैं नमाज पढ़ने से पहले हाथ-पैर धोने, शुद्ध होने को। इतना ही नहीं मौलाना ने ऐसी कई बातें कहीं जो उन्हें नहीं कहना चाहिए। हालांकि गुस्से में नूपुर ने जो कहा वह सरासर गलत ही था, लेकिन उस मौलाना का क्या? जो इस पूरे घटनाक्रम को चिंगारी देकर बगल हो गया?
सुप्रीम कोर्ट ने तो उस राष्ट्रीय न्यूज चैनल पर भी सवाल उठाए हैं। दरअसल, टीआरपी के चक्कर में ये भोंपू नए-नए तरीके अपनाते हैं। कोर्ट का सवाल है कि तब ज्ञानवापी का मुद्दा अदालत में विचाराधीन था। किसी भी विचाराधीन मुद्दे पर खुली बहस की इजाजत चैनल को किसने दी? जबकि कोर्ट में विचाराधीन मुद्दों पर संसद में भी बहस नहीं की जाती। वैसे, चैनलों का काम ही मुद्दों को भड़काना हो गया है, ऐसा लगता है।
खबर तक आप सीमित हैं तब तक सब ठीक है, लेकिन किसी बहस के नाम पर क्या होता है? एक होता है मुद्दे के पक्ष का व्यक्ति। दूसरा विपक्षी। तीसरा विशेषज्ञ होता है जो पक्ष और विपक्ष को भड़काता है। और चौथा होता है एंकर जो तीनों को लताड़ता है। ऐसे में बहस जब तक बहुत गर्म न हो, रोना-धोना, गुस्सा आदि तक बात नहीं पहुंचे, तब तक वह सफल नहीं मानी जाती। कई बार तो मारपीट भी लाइव हो चुकी।
कुल मिलाकर, मर्यादा उस देश चली गई, जिसका नाम किसी को पता नहीं। संयम उस सागर में तैरता-डूबता दिखाई देता है, जिसमें निराशा के खारे लेकिन बलशाली पानी के सिवाय और कुछ भी नहीं है। होना यह चाहिए कि पार्टियां कौमी मामलों पर बयान देने के लिए संयमशील लोगों को ही आगे रखें, वर्ना गलतबयानी चलती रहेगी और झगड़े भी होते रहेंगे।