Home Daily News Kashmir se report, Hindu ab yahan nhi safe | कश्मीर से रिपोर्ट, हिंदु अब यहां महफूज नहीं

Kashmir se report, Hindu ab yahan nhi safe | कश्मीर से रिपोर्ट, हिंदु अब यहां महफूज नहीं

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दक्षिणी कश्मीर की पीर पंजाल की पहाड़ियों में बसा काकरन गांव। आतंकियों की फैक्ट्री के नाम से कुख्यात कुलगाम जिले का यह गांव उस वक्त भी आतंकवाद से अछूता रहा, जब घाटी खून-खराबे से जूझ रही थी। रातों-रात हजारों कश्मीरी पंडित घरबार छोड़ गए थे, तब भी करीब 80 घरों वाले इस गांव में कुछ नहीं हुआ था। इस गांव में सिर्फ 8 घर हिंदू राजपूतों के थे, बाकी मुस्लिम घर। वो 8 घर तब भी महफूज थे।

पर अब इस गांव में हिंदू मारे जाने लगे हैं। ये पंडित नहीं, राजपूत हैं। इस साल 13 अप्रैल को आतंकियों ने सतीश सिंह की हत्या कर दी। सतीश सिंह की बहन मीना सिंह जामवाल कहती हैं कि ‘हमारे घर शादी हो या शोक, पूरा गांव शामिल होता है। अचानक हम किसे खटक गए? जब पूरी घाटी में कत्ल-ओ-गारत जारी था, तब भी किसी आतंकी की बंदूक काकरन तक नहीं पहुंची। फिर आज हमारे गांव का पता किसने दे दिया?’

सतीश सिंह के मारे जाने से सभी हिंदू राजपूत परिवार स्तब्ध हैं। मीना कहती हैं कि ‘90 के दशक से अब तक करीब 30-32 साल गुजर गए, लेकिन हमारे गांव पर आतंकियों की नजर नहीं पड़ी। हम तो इतने गुमनाम हैं कि यहां की सरकार को भी हमारा पता नहीं। फिर आतंकियों को हमारा पता कैसे चला? घाटी में हिंदू राजपूत भी हैं, यह शायद सरकार के आंकड़ों में भी नहीं है।’

कौन हैं कश्मीरी राजपूत जो 90 के दशक में भी सुरक्षित रहे
ये जामवाल राजपूत हैं। दावे के मुताबिक ये कश्मीर के अंतिम शासक राजा हरिसिंह के वंशज हैं। आपके पास निशानी है कुछ उनकी, फोटो या कुछ और? मीना कहती हैं कि ‘हमारे पास उनकी फोटो और कुछ चीजें थीं। पर गांव के दो राजपूत परिवार जम्मू गए तो वो सब ले गए। वे लोग 1990 के इर्द-गिर्द यहां से चले गए थे।’

आप लोग नहीं गए पर वह लोग चले गए क्यों, क्या उन्हें खतरा लगा? पूरी घाटी से कश्मीरी पंडित पलायन कर रहे थे। डर तो सबके मन में था ही। हालांकि, इस गांव में कोई घटना नहीं घटी, न हमें किसी ने जाने के लिए कहा। उन्हें शायद लगा हो कि आज कश्मीरी पंडित, कल हम भी हो सकते हैं। उनके घर आज भी सुरक्षित हैं, किसी ने हाथ तक नहीं लगाया। वह लोग हर गर्मी में 2-3 महीने यहां आकर रहते हैं। अगर हाल की कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो कभी राजपूत आतंकियों का निशाना बने नहीं।

अगर हम रोज मजदूरी न करें तो भूखों मर जाएं


आप लोगों का दावा है कि आप लोग राजा हरिसिंह के परिवार के हैं, ‘जमीनें तो आपके पास काफी होंगी? बिल्कुल थीं, लेकिन इन 74 सालों में परिवार बढ़ा तो कई टुकड़े भी हुए। इस गांव में एक ही परिवार के 8 घर बने, तो सोचिए कितनी जमीन बची होगी।’ वे आगे कहती हैं, आज तो स्थिति यह है कि अगर हम रोज मजदूरी न करें, भूखों मर जाएं। सतीश ट्रक ड्राइवर था। उसके जिम्मे बुजुर्ग मां, दो बेटिंयां और पत्नी है। एक बेटी विकलांग है।

उनका जीवन कैसे कटेगा? वह आतंकवादियों की गोली का निशाना बना, पर सरकार ने उसके परिवार को कोई मदद नहीं की। बस सुरक्षा के लिए पुलिस बैठा दी, घर के बाहर। अब आप ही बताएं, अगर हम घर में रहेंगे तो मजदूरी कैसे करेंगे, अगर वह नहीं करेंगे तो भूखों मर जाएंगे। पुलिस घर के बाहर है, पर हमारे साथ तो कहीं नहीं जाएगी। हम कभी नहीं डरे, लेकिन अब हमें डर लगता है, पता नहीं कौन सी गोली अब परिवार के किस सदस्य की जान ले लेगी? कौन अजनबी हमारे घर के बाहर पिस्टल लिए खड़ा होगा? पहली बार यहां अब राजपूत भी निशाने पर हैं।’

हिंदुओं में तो भारत सरकार को भेदभाव नहीं रखना चाहिए
‘भारत में सरकार बदलती है तो पीड़ित बदल जाते हैं। कांग्रेस के लिए पीड़ित हम थे, भाजपा के लिए सिर्फ कश्मीरी पंडित, हिंदू नहीं! कम से कम हिंदुओं में तो भारत सरकार को भेदभाव नहीं रखना चाहिए। राजपूत भी तो हिंदू ही हैं। कभी उन्हें ढांढस देने भी तो भारत सरकार के नुमाइंदे यहां आएं।

‘चलो हम तो उनके हैं ही नहीं, लेकिन क्या केवल कश्मीरी पंडित ही उनके हैं, राजपूत नहीं!’ गफूर खान इस गांव के बुजुर्गों में सम्मानित दर्जा रखते हैं। उन्हें जितना मुस्लिम मानते हैं, उतना ही हिंदू राजपूत भी। उनकी इस बात में तंज भी है और शिकायत भी। हालांकि, वे कैमरे में आने से साफ मना कर देते हैं, वे कहते हैं हम तो आतंकियों और सरकार दोनों के निशाने पर हैं। हमें तो आप माफ ही करें। वे इतना कहकर उठकर चल देते हैं।

कोई राजपूत मरता है तो मीडिया और प्रशासन उसे पंडित बताते हैं

आतंकियों की गोली का निशाना बने राजपूत परिवार के ही एक और सदस्य ने बताया, ‘जब भी कोई राजपूत मरा, तो उसे पंडित बताया गया। अभी मई में रजनीबाला नाम की एक महिला टीचर की हत्या हुई। मीडिया ही नहीं पुलिस ने भी उन्हें पंडित बताया। जम्मू-कश्मीर के ट्विटर हैंडल से जो ट्वीट हुआ उसमें कश्मीरी पंडित लिखा गया। वह कुलगाम जिले के गोपालपुरा गांव की थीं। राजपूत अपनी पहचान मीडिया को ठीक बताते हैं, लेकिन छपने के बाद वह पहचान बदल जाती है।

हम जब भी प्रशासन के पास अपनी किसी मांग को लेकर जाते हैं, वे राजपूत की जगह हमें कश्मीरी पंडित कहकर पुकारते हैं। लाख बार उन्हें बताओ वे कहते हैं, सब एक ही है। एक कैसे हैं? राजपूत होना हमारी पहचान है। क्या देश के अन्य हिस्सों में पंडित और राजपूत एक ही होते हैं?

सरकार से कहना, कश्मीर में सिर्फ पंडित नहीं, राजपूत भी रहते हैं….
एक 8 बाई 8 के कमरे में 9-10 लोग बैठ हैं। उसमें कुछ बच्चे, एक बुजुर्ग और कुछ जवान हैं। उन्हें देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी स्थिति कितनी दयनीय है! उस घर में ठीक-ठाक कमाई का जरिया अगर कोई था तो वह सतीश सिंह ही था। वह ट्रक चलाता था। बाकी सब मजदूरी करते हैं। अब जब सतीश नहीं रहा, उसकी बीवी, दो बच्चियां और बुजर्ग मां के सामने जिंदगी का संकट खड़ा हो गया।

उस परिवार से बातचीत चल ही रही थी कि एक बच्ची पैर घसीटते हुए कमरे में दाखिल होती है। सतीश सिंह की पत्नी उसे इशारे में अंदर बुलाती है। वहां मौजूद लोग कहते हैं, सतीश की यह बड़ी बेटी है। 7वीं में पढ़ती है, विकलांग है। एक छोटी बच्ची है जो 5वीं में पढ़ती है। पत्नी है, मां है। सरकार ने हत्या के बाद बस पुलिस घर के बाहर तैनात कर दी, लेकिन यह लोग खाएंगे क्या, जिएंगे कैसे यह नहीं सोचा।

घाटी में अतिअल्पसंख्यकों की गुहार, स्कूल में हिंदी टीचर तक नहीं
सतीश सिंह के भाई कुलजीत सिंह कहते हैं, हम यहां हिंदुओं में भी अल्पसंख्यक हैं। पूरे कुलगाम में 40 परिवार रहते हैं। इसके अलावा शोपियां में भी 20-25 परिवार होंगे। कुछ परिवार और जगहों पर होंगे, लेकिन इन दो ही जिलों में सबसे ज्यादा राजपूत परिवार रहते हैं।

सतीश सिंह की बहन कहती हैं, पंडितों को PM पैकेज के तहत निवास, नौकरी सब कुछ। हमारे लिए तो गरीबों को मिलने वाला राशन तक नहीं। और तो और स्कूल में सालों हो गए एक हिंदी टीचर तक नहीं। उर्दू में सारे विषय पढ़ाए जाते हैं। हमारी पहचान तो लगभग छीन ही गई है क्या अब भाषा भी छीन ली जाएगी?

कभी ब्रिटिश हुकूमत से कश्मीर को खरीदने वाले राजा गुलाब सिंह, घाटी के अंतिम शासक राजा हरिसिंह के वंशज होने का दावा करने वाली राजपूत कम्युनिटी अपनी पहचान बचाने की लड़ाई लड़ रही है। यह लड़ाई तो कई सालों से वह लड़ रही है, लेकिन सुकून था कि आतंकियों की नजर उन पर नहीं पड़ी थी।

टारगेट किलिंग में 3 राजपूतों की भी जान गई
इस बार जब घाटी में टारगेट किलिंग का दौर शुरू हुआ तो उसमें कम से कम 3 राजपूतों पर भी गोली चली। दो कुलगाम के थे तो एक शोपियां के मजदूर राजपूत की हत्या हुई। सतीश सिंह के भाई कुलजीत सिंह कहते हैं, 3 का आंकड़ा तो हमें पता है, हो सकता है कि और भी राजपूत मरे हों, लेकिन कश्मीरी पंडितों की पहचान तले उनकी पहचान दब गई हो।

दरअसल कश्मीर का ये राजपूत समुदाय भी अब 1990 वाली दुविधा में पड़ चुका है। कश्मीर में टारगेट किलिंग की बढ़ती संख्या के बीच खुद को असहाय महसूस कर रहे इस समुदाय के सामने गरीबी की समस्या पहले से मौजूद थी, लेकिन मौत का डर नहीं कभी रहा। हालांकि, अब घाटी की बदलती फिजा में इनके सामने भी पलायन का बड़ा संकट सामने खड़ा है। इनका दर्द भी दोतरफा है। ये समुदाय सिर्फ खौफ से ही नहीं जूझ रहा, बल्कि अपने ऊपर आए संकट को सरकारी तरजीह न मिलने से भी नाराज है। दरअसल घाटी के राजपूत अब पंडितों जैसा भविष्य देखकर खौफ के साए में हर दिन काट रहे हैं।

उन पर भी निशाना जो आतंकियों की आइडियोलॉजी में फिट नहीं बैठते
कश्मीरी पंडित तो आतंकियों के निशाने पर 32 साल से हैं, लेकिन इस बार घाटी में आतंकियों ने अपना दायरा बढ़ा दिया है। उनके बनाए सामाजिक नियमों के खिलाफ जो भी है, वह अब उनकी गोली के निशाने पर है। उसे वह घर में घुसकर मारेंगे। इसलिए इस बार एक मुसलमान लड़की अमरीन भी निशाने पर आ गई। उसका गुनाह था कि वह सोशल मीडिया की स्टार थी। वह गाना गाती थी, अपना चेहरा भी दिखाती थी।

आतंक के लिए सबसे बड़ा खतरा होता है लोकतंत्र। लोकतंत्र की व्यवस्था को आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने का जिम्मा होता है, सरपंच का। इसलिए अब सरपंच भी निशाने पर।

अमरीन घर की तरफ भागी, उसे यकीन रहा होग अब्बा मुझे बचा लेंगे, लेकिन …

मेरी बच्ची तो कलाकार थी। गाना गाती थी। वह दहशतगर्दों के निशाने में क्यों थी? अगर उसके काम से दिक्कत होती तो फिर 14 सालों में कभी तो कोई शिकायत आती, कोई धमकी देता!’ अमरीन के अब्बा की आवाज बेटी की हत्या का जिक्र करते-करते भारी होने लगती है।

रुंधे गले से वे कहते हैं, 6 लोगों का बोझ मेरी बच्ची के कंधों पर था। मैं, उसकी बहन, बहन के दो बच्चे और जीजा। उसके घर में घुसते ही जान आ जाती थी। जिंदादिल थी मेरी बच्ची।

अमरीन के अब्बा कत्ल की उस रात की कहानी बताते बताते अचानक चुप हो जाते हैं। मानो अमरीन की वह लाश उन्होंने फिर देख ली हो। फिर वह बिल्कुल धीरे-धीरे भुनभुनाते हैं- ‘एक आगे से और एक पीछे से गोली मारी। पहली गोली लगने के बाद अमरीन घर के अंदर भागी, शायद उसे लगा हम उसे बचा लेंगे। हम निकलते तब तक दूसरी गोली दहशतगर्दों ने पीछे से मार दी।’

खून से लथपथ वह जमीन पर आ गिरी।’ वे कहते हैं, अमरीन घर की तरफ भागी थी, उसे यकीन होगा कि उसके अब्बा उसे बचा लेंगे, लेकिन…वह इतना कहते-कहते चुप हो जाते हैं।

अमरीन का भांजा जिसने सब कुछ आंखों देखा वह उस रात की वारदात को हूबहू बताता है। उसके हाथ में भी एक गोली लगी, शुक्र है वह बच गया। 8 साल का वह बच्चा कहता है- ’25 मई, रात के करीब 8 बजे होंगे। दरवाजे पर एक बाइक रुकी। उस पर दो लोग सवार थे। उससे एक आदमी उतरा, उसने मुझसे पूछा, अमरीन कहां हैं? उसे बुलाओ। मैं अंदर आया, मौसी से कहा, तुमसे कोई मिलने आया है। वह बाहर गई। उस आदमी ने कहा, बड़गाम में शादी है, तुम्हें गाने के लिए आना है।

मौसी ने कहा- मैं गाने के लिए किसी के घर नहीं जाती। आप कौन? बस इतना बोलना था कि उस आदमी ने पिस्टल निकाली और उसके सीने पर मारी। वह अंदर भागी। दूसरी गोली भी चली, लेकिन वह मेरे बाजू में लगी। मैं गिर पड़ा। फिर मुझे नहीं पता क्या हुआ?

शबीर से नहीं, लोकतंत्र के बहाल होने से गुस्से में थे आतंकी
ओडुरा गांव के सरपंच शबीर अहमद मीर करीब तीन महीने पहले 11 मार्च शाम 7.30 को आतंकियों का टारगेट बने। शबीर की पत्नी के आंसू शबीर का नाम सुनते ही फिर बहने लगते हैं। उनसे पूछने पर कि क्या गांव में किसी से कोई दुश्मनी थी, तो वह कहती हैं-आप गांव में खुद पूछ लो, वह कैसा था?

दशक बाद सरपंच के चुनाव हुए, उस वक्त धमकी नहीं मिली? शबीर के बेटे शाहिद कहते हैं, जैसे ही उन्होंने फार्म भरा, उनकी पार्टी ने उन्हें सोनवारा के पास कहीं रखा। वे बस कुछ मीटिंग लेने ही यहां आते थे, ज्यादातर वह वहीं रहते थे। पार्टी को अंदाजा था कि कोई हादसा हो सकता है।

शबीर किस पार्टी से थे? शाहिद उनका आईडी कार्ड, कुछ पर्चे निकालकर दिखाता है, ID में लिखा है, डिस्ट्रिक्ट वाइस प्रेसिडेंट BJP। दरअसल शबीर एक तो सरपंच थे, उस पर भाजपा से थे। बस यह दो वजहें उन्हें निशाने पर लेने के लिए काफी थीं। शबीर की पत्नी, हिंदी नहीं बोल पातीं, लेकिन वह बहुत कहना चाहती हैं। उनके आंसू थमने का नाम नहीं लेते। हम उन्हें ढांढस बंधाते हैं तो वह हमें ऐसे देखती हैं मानों कह रही हों, क्या अब ढांढस के लिए उनके पास कुछ बचा है?

टारगेट किलिंग का मकसद क्या है?
कश्मीर के DGP दिलबाग सिंह कहते हैं, ‘घाटी में आतंक एक इंडस्ट्री की तरह था। उसमें हुर्रियत वालों की दुकान चलती थी। MBBS के दाखिले कराओ उससे पैसे कमाओ, आम नागरिकों को मिलिटेंट मारे इसके लिए पैसा लाओ। फिर जो मरा अब उसके परिवार को देने के लिए पैसे लाओ।

उन सब से अपना कमीशन कमाओ। इस पूरे कारोबार में सबको अपना फायदा नजर आता था। आतंक का यह कारोबार मंदा पड़ने लगा तो कारोबारी बौखला गए।’

वे कहते हैं, ‘शुरू-शुरू में इन बौखलाए कारोबारियों ने, बटमालू में किसी ने दुकान खोल दी तो उसे मार दिया, कभी दुकान को आग लगा दी। सिविलियन की गाड़ी जला दी, लेकिन लोगों ने खुद विरोध करना शुरू किया।

धीरे-धीरे गली कूचों, चौराहों में दुकाने खुलने लगीं। फ्रूट का सीजन आया तो फरमान पास हुआ कि फ्रूट बाहर नहीं जाएगा। हम पूरी फोर्स लेकर बागीचों में तैनात हो गए। इन्होंने कभी ड्राइवर को मार दिया तो कभी बागीचे के मालिक को।’ 

दिलबाग सिंह कहते हैं कि फिर फरमान आया कि 10वीं-12वीं की परीक्षाएं नहीं होंगी। बच्चे

निकले, पेरेंट्स ने उन्हें निकाला। लाखों बच्चों ने परीक्षाएं दीं। आतंक के आकाओं के फरमान की नाफरमानी वही नागरिक करने लगे जो उनकी एक कॉल में सब बंद कर घर में बैठ जाते थे। यानी खौफ का बाजार ठंडा पड़ने लगा। क्या करें, तो चलो अब बेकसूरों का निशाना बनाएं।

कश्मीरी पंडित तो थे ही निशाने पर, लेकिन अब सोशल क्लींजिंग के नाम पर कभी किसी कलाकार की हत्या हुई, तो कभी लोकतंत्र की सबसे मजबूत नींव रखने वाले सरपंचों पर गोली चली। दरअसल, उन्हें दिक्कत किसी व्यक्ति से नहीं बल्कि खौफ खत्म होने और अमन कायम होने से है। इसलिए जो भी सॉफ्ट टारगेट लगता है उसे मार देते हैं।

इस साल कितने लोग टारगेट किलिंग का शिकार हुए?

अब तक (30 मई तक) 16 नागरिकों की मौत हो चुकी है। 2021 में 25 लोग मारे गए थे, जबकि 2020 में 36 नागरिक मारे गए थे। इसमें राजपूत कितने हैं? DGP दिलबाग सिंह के पास इसके अलग से कोई आंकड़े नहीं थे। लेकिन हां, उन्होंने माना इस बार कुछ राजपूत तो मारे गए हैं। कितने पता नहीं।

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