Home Entertainment News Kashmir Files aise hi nhi bani, actor bhi ‘Kashmir banega Pakistan’ ke naare lagane ke baad routey hai | कश्मीर फाइल्स ऐसे ही नहीं बनी, एक्टर भी ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ के नारे लगाने के बाद बिलख कर रोते थे

Kashmir Files aise hi nhi bani, actor bhi ‘Kashmir banega Pakistan’ ke naare lagane ke baad routey hai | कश्मीर फाइल्स ऐसे ही नहीं बनी, एक्टर भी ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ के नारे लगाने के बाद बिलख कर रोते थे

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अभी द कश्मीर फाइल्स मूवी सुर्खियों में है। देशभर में इसको लेकर चर्चा छिड़ी है। सियासत भी थमने का नाम नहीं ले रही है। दरअसल यह फिल्म जिसने बनाई है वो मैं ही हूं। नाम है विवेक रंजन अग्निहोत्री। राइटर भी हूं और डायरेक्टर भी। इसके पहले मेरी फिल्म ताशकंद फाइल्स लाइम लाइट में रही थी। मैं बॉलीवुड से नहीं हूं। इस सो कॉल्ड बॉलीवुड से 13 साल पहले इस्तीफा दे दिया था। बॉलीवुड क्या है…. ? मैं नहीं जानता। एक भारतीय फिल्मकार हूं, भारतीय समाज को आइना दिखाती फिल्में बनाता हूं और बनाता रहूंगा।

अभी दिल्ली फाइल्स नाम की एक फिल्म पर रिसर्च कर रहा हूं। आप इसके नाम से यह न सोचने लग जाएं कि यह दिल्ली दंगों पर आधारित है। यह उससे भी अहम मुद्दे पर है, लेकिन फिलहाल राज को राज ही रहने दीजिए। अभी तो बात सिर्फ कश्मीर फाइल्स पर होगी।

मैं लोगों को बताना चाहता हूं कि कश्मीर फाइल्स मैंने क्यों बनाई? इसे बनाने से पहले मेरे अंदर क्या कशमकश थी। मैं हमेशा सोचता था कि बॉलीवुड और नॉन बॉलीवुड ने कश्मीर के मुद्दे पर सात-आठ फिल्में बनाईं हैं। मसलन रोजा, फिजा, फना, मिशन कश्मीर, हैदर जैसी फिल्में। ये सभी उस दौर की फिल्में हैं, जब वहां आतंकवाद चरम पर था।

यशराज स्टूडियो, विनोद चोपड़ा, मणिरत्नम और विशाल भारद्वाज जैसे दिग्गजों ने यह फिल्में बनाईं हैं। मेरा मानना है कि इन सभी फिल्मों में आतंकवाद को सही ठहराया गया है। इनमें एक आतंकी की मानसिकता और मनोविज्ञान को दिखाया गया कि वह किन हालातों में आतंकी बनता है, लेकिन किसी एक्टर या डायरेक्टर ने आतंकियों से जाकर नहीं पूछा कि वे क्या सोचते हैं? उनके विचार क्या हैं? बस एक मनगढ़ंत थ्योरी क्रिएट कर दी कि आर्मी इन्हें सताती है, इसलिए ये लोग आतंकी बन गए।

कश्मीर में तैनात CRPF के कई सीनियर्स मुझसे मिलने आए। वे लोग बता रहे थे कि कश्मीर को लेकर बॉलीवुड ने जो नैरेटिव बनाया है, उससे यहां की सुरक्षा और फोर्स को कितना नुकसान हुआ है, उसका लेखा जोखा नहीं है। जिस दिन इसका लेखा-जोखा होगा, इसका हिसाब होगा कि कैसे इंटेलेक्चुअल आतंकियों की पनाह पर कश्मीर में आतंकवाद पनप रहा है, उस दिन शर्म के मारे यह लोग डूब मरेंगे।

इनका कहना है कि इनके साथ जुल्म हुआ है इसलिए इन लोगों ने बंदूकें उठा लीं। मैं पूछना चाहता हूं कि देश में दलितों पर कितना जुल्म हुआ है, वो लोग तो बंदूक नहीं उठाते। जमींदारों ने किसानों पर अत्याचार किए, लेकिन उन्होंने तो बंदूक नहीं उठाई। कभी कश्मीरी हिंदूओं ने बंदूक नहीं उठाई, पत्थर नहीं फेंके, गाली नहीं दी, बल्कि वो अपने बच्चों को शिक्षित करने में लग गए। इसलिए मैंने यह सोचा कि अब एक ऐसा भी पॉइंट ऑफ व्यू आना चाहिए, जो सच दिखाए। झूठी और मनगढ़ंत कहानियां बहुत हो गईं। इस तरह से कश्मीर फाइल्स ने मेरे जेहन में जन्म लिया।

इसके पीछे एक और कहानी है। एक दफा मैं अमेरिका गया। वहां मेरी मुलाकात डॉक्टर सुरेंद्र कौल से हुई। वे ग्लोबल कश्मीरी पंडित डायसपोरा के फाउंडर हैं। उन्होंने मुझसे कहा कि विवेक जी सब लोग हमारे बारे में झूठी फिल्में बनाते हैं। कोई सच्ची फिल्म बनाएगा क्या? इतनी हिम्मत है किसी में? आप बनाएगें क्या?

मैंने उनसे कहा कि इसे बनाने में जान का खतरा होगा, इसलिए लोग इस फिल्म को नहीं बना रहे हैं। आतंकवादियों से मिलने या उनसे दोस्ती करने में शायद ज्यादा फायदा होगा। मैंने उनसे पूछा कि इसमें पैसे कौन लगाएगा? कोई डिस्ट्रीब्यूट नहीं करेगा तो आखिर फिल्म बनेगी कैसे? इस पर उन्होंने कहा कि विवेक जी अगर आप भी हार मान लेंगे, तो हम कहां जाएंगे। बस उसी बात ने मुझे बहुत कचोट लिया।

अमेरिका से भारत लौटते वक्त फ्लाइट में यही बात सोचता रहा। लौटने के बाद मैंने कश्मीर के बारे में पढ़ा। मुझे पता चला कि कश्मीर के बारे में जितनी भी बातचीत हुई है, वह राजनीतिक बातचीत हुई है और मीडिया के हवाले से हुई है। कश्मीर में मानवता का चेहरा हमारे सामने नहीं आया। उसी ने मुझे इस फिल्म के लिए पुश किया।

इस तरह आज से 4 साल पहले यह सिलसिला शुरू हुआ था। इन चार सालों में फिल्म की रिसर्च पर काम करते हुए कश्मीर के मशहूर गंजू परिवार की कहानी ने बहुत दफा रुलाया। फिल्म में जो कृष्णा पंडित का कैरेक्टर है, वह उन्हीं पर आधारित है। ऐसी बर्बरता और दर्दनाक तरीके से उन्हें मारा था कि उसके बारे में बात भी नहीं की जा सकती।

बच्चों के पिता उन्हें उनकी नानी के यहां छोड़ गए थे। उनकी नानी किसी तरह बच्चों को कश्मीर से लेकर निकल पाई। फिर वह लड़का पुणे में पढ़ा। 18-19 साल तक उसे बताया ही नहीं गया कि उसके माता-पिता को किस बर्बरता से मारा गया। उसकी नानी ने उसे बताया कि उसके माता-पिता का स्कूटर से एक्सीडेंट हो गया था, जिसमें उनकी मौत हो गई। मुझसे यह सहा ही नहीं जा रहा था, किसी को यह न बताया जाए कि उसके मां-बाप को किस बर्बरता से मारा गया।

यह मेरे लिए सबसे ज्यादा विचित्र, विचलित, दहला देने वाली, कहानी थी। मैं जब जब उस कहानी को एक बेटे की तरह सोचता था तो दहल जाता था। उसी का नतीजा है कि इस फिल्म को एक सूत्र में बांधने का काम कृष्णा पंडित ने किया है, जो हिमांशू गंजू के किरदार पर आधारित है।

यह तो है फिल्म बनाने से पहले की कहानी। इसके रिलीज होने के बाद लोगों को लग रहा होगा कि मैं बदल गया हूं, लेकिन ऐसा नहीं है। मैं जिंदगी भर ऐसा ही रहूंगा। मुझे शोहरत, गाड़ियों और पैसे का शौक नहीं। सरकार ने मुझे सिक्योरिटी दी है, लेकिन मुझे यह जेल की तरह लगती है। मैं एक आम आदमी हूं, किसी से भी मिल लेता हूं। मुझे दस मिनट भी काम न मिले तो मैं रेस्टलेस हो जाता हूं।

मैं सिर्फ काली टीशर्ट और काली पेंट पहनता हूं ताकि कपड़ों के रंग छांटने के लिए भी वक्त नहीं गंवाना पड़े। मेरे पास तीन से चार काली टीशर्ट हैं और तीन-चार काली पेंट हैं। जो कपड़ा मुझे आलमारी में सबसे ऊपर दिखाई देता है, उसे पहन लेता हूं।

कई दफा लोग लंबे वक्त से कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन वो कह नहीं सकते। क्योंकि हर आदमी एक्टिविस्ट नहीं है। वो राजनीति में नहीं होता है या फिल्ममेकर नहीं होता है। उसकी आम जिंदगी होती है। जैसे हमारे माता-पिता होते हैं, उन्हें लगता है कि देश और समाज को लेकर मीडिया और आसपास के लोग झूठ बोल रहे हैं। उन्हें सच जानने की इच्छा होती है, जबकि इंटेलेक्चुअल और पढ़े-लिखे लोग सच को तोड़ने-मरोड़ने लगते हैं।


इस फिल्म को देखने वाले आम लोग हैं। हाउस वाइफ और यूथ हैं। वे जानना चाहते हैं कि आखिर हुआ क्या था? अब उन्हें लग रहा है कि उनकी आवाज को किसी ने आवाज दे दी है। अब वो आवाज मैंने दी है तो मैं कोई महान नहीं हूं। बस उन्हें प्यास थी। नदी बगल में थी, किसी ने नदी से नहर बनाने का काम नहीं किया था, मैंने वो नहर बना दी। नदी का पानी उन तक पहुंचा दिया है, लेकिन असली गंगा कहीं और है, पीने वाले कहीं और हैं। मैं तो बस एक जरिया बना हूं।

आतंकवाद एक व्यवसाय है। इस व्यवसाय को चलाने वाले नंगे हो गए हैं। यह नंगापन उनके साथ पहली दफा हुआ है। राजा के अगर आप कपड़े उतार दें तो यह उसके लिए सबसे शर्म की बात होती है। इसीलिए जब भी डिक्टेटर्स को मारा जाता है तो आप देखें कि वह नाली में, गुफा में या नंगे पड़े मिलते हैं। उन्हें बुरे से बुरे रूप में दिखाया जाता है। क्योंकि वह सत्य है। जो आदमी बहुत ताकतवर और विशाल दिखता है, असल में उसकी ताकत झूठ पर टिकी होती है।

इस फिल्म ने उस झूठ का पर्दा हटा दिया है। सब बेनकाब हो गए हैं। इसलिए इनके पास मुझे गाली देने के अलावा कोई ऑप्शन नहीं हैं। मैं तो इन गालियों को सरस्वती का आशीर्वाद मानता हूं। सवाल यह उठना चाहिए की फिल्म मानवता के हित में है या नहीं। सवाल यह नहीं होना चाहिए कि वो मेरे बारे में क्या कहते हैं। मुझे फिल्म बनाने से पहले और बाद में आ रही धमकियों से डर नहीं लग रहा। मुझे मरने से भी डर नहीं लगता है।

मेरी फिल्म में कोई डायरेक्टर नहीं, कोई म्यूजिक डायरेक्टर नहीं, कोई कैमरामैन नहीं। सभी पीछे शांत काम कर रहे हैं। अपने आपको दबाकर। यह अचानक नहीं हुआ, सब सोच समझकर किया गया है। इस फिल्म में सिर्फ किरदारों का दर्द, पीड़ा और उनकी कहानी दिखाई देगी। यह सोच समझ कर किया गया है। इस फिल्म में आपको वो दिखेगा, जो अक्सर फिल्मों में नहीं दिखाई देता है। वह है संवेदना, मानवता और दृढ़ निश्चय। फिल्म के जरिए आतंकवाद के खिलाफ और मानवता के हक में हमारा मिशन था। यही हमारी विचारधारा थी। इसीलिए पूरे देश और विदेश से लोग इस फिल्म से जुड़े।

मैं बहुत आध्यात्मिक इंसान हूं। मुझे अगर डर लगता तो मैं यह फिल्म बनाता ही नहीं। बहुत लोग बोल रहे हैं कि मैंने फिल्म में अति दिखाई है। ऐसा एक भी मुसलमान क्यों नहीं दिखाया, जिसने उस कत्लेआम में हिंदुओं की मदद की हो। जैसा कि अक्सर बंटवारे, 84 के दंगों या अन्य दंगों में देखने को मिलता है कि लोगों ने विपरीत विचारधारा के होते हुए भी एक दूसरे की मदद की। हमारा इतना ज्यादा ब्रेन वॉश कर दिया गया है कि हम लोग फिल्म में आतंकियों का भी पॉइंट ऑफ व्यू रखना चाहते हैं। आतंकियों को सुनना चाहते हैं।

मैं पूछना चाहता हूं कि आतंकवादी का पॉइंट ऑफ व्यू कैसे हो सकता है? कोई पॉइंट ऑफ व्यू नहीं। वे तो मानवता के खिलाफ हैं। धर्म के आधार पर लोगों को मार रहे हैं। जो भी आदमी यह चाहता है कि फिल्म में आतंकवादियों का भी पॉइंट ऑफ व्यू हो वह मानव नहीं है।

मैं जिंदगी भर ऐसा ही रहूंगा। मुझे शोहरत, गाड़ियों और पैसे का शौक नहीं। सरकार ने मुझे सिक्योरिटी दी है, लेकिन मुझे यह जेल की तरह लगती है।
मैं जिंदगी भर ऐसा ही रहूंगा। मुझे शोहरत, गाड़ियों और पैसे का शौक नहीं। सरकार ने मुझे सिक्योरिटी दी है, लेकिन मुझे यह जेल की तरह लगती है।

वैसे मैं बताना चाहूंगा कि फिल्म में जो आखिरी सीन है, जिसमें शिकारा में एक मुस्लिम, एक छोटे बच्चे के साथ कृष्णा पंडित से बात करते हैं। वह सीन मैंने एक कश्मीरी लड़के से ही लिखवाया और उसी के एक दोस्त ने इसमें एक्टिंग की है। मैंने उससे कहा कि जो तुम लिखोगे, मैं उसका वैसे के वैसे ही चित्रण करुंगा। उनकी पीड़ा भी है फिल्म में। जो नेताओं की बात सुनेगा तो फिल्म में कमियां पाएगा, लेकिन अगर आम आदमी की बात सुनेंगे तो फिल्म देखने का नजरिया बदल जाएगा।

महाभारत की लड़ाई क्या है। हर आदमी अपनी-अपनी तरफ से धर्म कर रहा था। दुर्योधन ने भी अपना धर्म ही निभाया है, लेकिन उसमें और पांडवों में क्या फर्क था? फर्क यह था कि पांडवों में करुणा थी। यही करुणा अलग करती है राम और रावण को।

शूटिंग करते वक्त हर सीन के बाद एक्टर फफक-फफक कर रोने लगते थे। मैं अपने पिता की मौत के बाद से रोया ही नहीं था, लेकिन फिल्म में जब अनुपम खेर की मौत होती है तो मैं उनसे लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगा था। मुझे मेरे पिता की याद आ गई। इस फिल्म में सब लोग कहीं न कहीं रोते रहे। इमोशनल होते रहे। फिल्म में एक्टर ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’ के नारे लगाने के लिए तैयार नहीं होते थे। हम उन्हें बहुत समझाते थे। इस तरह के नारों वाले सीन शूट करने के बाद वे लोग बहुत रोते थे, फिर भारत माता की जय, वंदे मातरम के नारे लगाते थे।

फिल्म की शूटिंग के दौरान तरह-तरह की समस्याएं आईं। जब हम कश्मीर में शूटिंग कर रहे थे तो मेरे नाम का फतवा निकाल दिया गया। मजबूरन हमें अपना बोरिया बिस्तरा उठाकर शूटिंग उत्तराखंड जाकर करनी पड़ी। वहां कश्मीर जैसा पूरा सेट लगाना पड़ा।

आतंकवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले यासीन मलिक की विचारधारा को मैंने फिल्म में खुलकर दिखाया है। जेएनयू और कॉलेजों की विचारधारा को पूरी ईमानदारी से बिना एक शब्द काटे, बिना कॉमा और फुल स्टॉप बदले दिखाया है। पल्लवी जोशी (राधिका मेनन) ने उस किरदार को पूरी ईमानदारी से जिया है।

कुछ लोगों को जेएनयू से बहुत समस्या है कि हमने उसे एक ही रंग में रंग दिया, लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि फिल्म में मैटाफर से काम होता है। जो विचारधारा जेएनयू में है वह हर यूनिवर्सिटी और कॉलेज में चल रही है और यही सत्य है। मैं हाथ जोड़ता हूं कि मेरी फिल्म के बारे में ऐसा न कहें कि इसके जरिए इस्लामोफोबिया फैल रहा है।

जहां तक बॉलीवुड की बात है तो उसे इमैच्योर लोग चलाते हैं। जिन्हें न तो भारत का ज्ञान है, न किसी दूसरी चीज का ज्ञान है। उन्हें सिर्फ भेड़चाल का पता होता है। मैंने अभी तक तीन फिल्में बनाई हैं। बुद्धा इन ट्रैफिक जाम, ताशकंद फाइल्स और अब कश्मीर फाइल्स। तीनों फिल्में बताती हैं कि दर्शक बहुत इंटेलिजेंट हैं। तीनों फिल्में ऐसी हैं, जिनके बारे में बॉलीवुड मानता है कि फिल्म में ऐसा नहीं होना चाहिए, वही उनके अंदर है। इसका मतलब है कि दर्शक तो ऐसी फिल्में देखने के लिए तैयार है, लेकिन कोई बनाने के लिए तैयार नहीं है।

मैं अपने बारे में बताऊं तो कॉलेज टाइम में वामपंथ और नक्सल आइडियोलॉजी की पैरोकारी करता था। मैंने उस राजनीति को बहुत करीब से देखा है। धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ कि नक्सल आइडियोलॉजी देश और मानवता के हित में नहीं है। अगर कोई लोकतंत्र में बंदूक लेकर अपनी बात कहने की कोशिश करता है, तो उसे जरा भी स्कोप नहीं मिलना चाहिए कि उसकी बात को सुना जाए।

बंदूक फेंक दो हमेशा के लिए, अपने-अपने तरीके से प्रोटेस्ट करो। कश्मीरी पंडित बीते 32 सालों से प्रोटेस्ट कर रहे हैं। बीते 55 साल से नक्सली बंदूक लेकर आदिवासियों को मार रहे हैं, औरतों के साथ बलात्कार कर रहे हैं, उसके खिलाफ कोई बोलने के लिए खड़ा नहीं हो रहा है। मैं एक अकेला आदमी था, जिसने नक्सलियों के खिलाफ आवाज उठाई।

मैं अपने काम को अर्जुन की तरह मछली की आंख मानता हूं। मुझमें या 100 मीटर रेस में हिस्सा लेने वाले या लास्ट बॉल पर इंडिया को जिताने वाले बैट्समैन में कोई फर्क नहीं है। वह अपना काम बहुत शिद्दत से देश के लिए करते हैं। मैं भी शिद्दत से देश के लिए काम करता हूं। रही बात बिना डरे अपनी बात रखने की तो यह मेरा नेचर है।

जो बच्चा पैदा होता है, वह किसी से डरता नहीं है, वह अंधेरे कमरे में भी चला जाता है। यह तो धीरे-धीरे हमें सिखाया जाता है कि झूठ बोलो बेटा, डरो, हिपोक्रेट बन जाओ, कायर बनो। यह सब तो हम स्कूल और कॉलेज में सीखते हैं। मैं अभी भी शायद बच्चा हूं। जो अंधेरे कमरे में जाने से डरता नहीं है और बाहर निकलकर सच बोलने से भी नहीं डरता है।

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