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Governor vs State Government: नया नहीं है गवर्नर बनाम राज्य सरकारों का विवाद, जानें राज्यपाल के पास क्या-क्या होते हैं अधिकार

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गैर-बीजेपी शासित राज्यों में सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव की स्थिति कोई नई बात नहीं है. बहुत समय से एक दूसरे के कामकाज में रोड़े अटकाए जाने का आरोप लगाया जाता रहा है.

Governor Vs State Governments: तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, दिल्ली और पश्चिम बंगाल, इन सभी राज्यों में गैर-बीजेपी सरकार है और एक बात कॉमन है. वो बात है राज्य सरकार का राज्यपाल के साथ विवाद. बीते कुछ समय से पांचों राज्यों में राज्यपाल बनाव राज्य सरकार देखने को मिल रहा है. सभी राज्यों में सरकारों और राज्यपालों के बीच बयानबाजी चलती रहती है और एक दूसरे के कामकाज में रोड़े अटकाए जाने का आरोप लगाया जाता है. हाल ही में गैर-भाजपा शासित तीन दक्षिणी राज्यों में राज्यपालों और सत्तारूढ़ सरकार के बीच टकराव काफी बढ़ गया.

तमिलनाडु ने आरएन रवि को वापस बुलाने की मांग की, केरल ने राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति पद पर राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान की जगह शिक्षाविदों को नियुक्त करने के लिए अध्यादेश मार्ग प्रस्तावित किया और तमिलिसाई सुंदरराजन ने संदेह जताया कि तेलंगाना में उनका फोन टैप किया जा रहा है. चलिए अब आपको सभी राज्यों में चल रहे विवाद के बारे में विस्तार से बताते हैं और फिर ये भी बताते हैं कि राज्यपाल के पास क्या-क्या अधिकार होते हैं.

केरल में क्यों है विवाद?

केरल में सत्तारूढ़ एलडीएफ का पूर्व में राज्यपाल खान के साथ कई बार टकराव हो चुका है. एलडीएफ ने कहा कि उसने राज्य के विश्वविद्यालयों में राज्यपाल की जगह प्रतिष्ठित शिक्षाविदों को कुलाधिपति बनाने के लिए बुधवार को अध्यादेश लाने का फैसला किया. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) दोनों ने इस फैसले का विरोध किया है. मुख्यमंत्री कार्यालय के बयान के अनुसार मंत्रिमंडल की बैठक में फैसला किया गया कि खान से अध्यादेश को मंजूरी देने की सिफारिश की जाएगी जो विश्वविद्यालय कानूनों में कुलापधिपति की नियुक्ति से संबंधित धारा को हटा देगा. इस धारा में कहा गया है कि राज्यपाल राज्य के 14 विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी होंगे.

तेलंगाना में क्या है विवाद?

तेलंगाना की राज्यपाल ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) शासित तेलंगाना में ‘अलोकतांत्रिक’ स्थिति का दावा किया. तमिलिसाई सुंदरराजन ने संदेह जताया कि तेलंगाना में उनका फोन टैप किया जा रहा है. उनके इस बयान पर इस पर अब विवाद गहराता जा रहा है. तेलंगाना सीपीआई के वरिष्ठ नेता के नारायण ने तो यहां तक कह दिया कि हमारे देश के लिए गवर्नर सिस्टम उपयोगी ही नहीं और सभी पीएम मोदी से आह्वान किया कि सभी राज्यपालों को तुरंत हटा देना चाहिए.

तमिलनाडु में क्या हो रहा है?

तमिलनाडु के संबंध में, सत्तारूढ़ द्रमुक के नेतृत्व वाले धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील गठबंधन (एसपीए) ने राज्यपाल रवि को बर्खास्त करने की मांग करते हुए राष्ट्रपति भवन का दरवाजा खटखटाया और आरोप लगाया गया कि उन्होंने “सांप्रदायिक घृणा को भड़काया है.” गठबंधन के संसद सदस्यों ने राष्ट्रपति कार्यालय को प्रस्तुत अर्जी में राजभवन के पास लंबित विधेयकों को भी सूचीबद्ध किया गया है और स्वीकृति के लिए देरी पर सवाल उठाया गया. इन विधेयकों में राज्य को नीट मेडिकल परीक्षा के दायरे से छूट देने के प्रावधान वाला विधेयक भी शामिल है.

पश्चिम बंगाल में भी दिखा था जबरदस्त विवाद

पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच संबंध कुछ अच्छे नहीं थे. दोनों ही एक दूसरे की सार्वजनिक रूप से आलोचना कर चुके हैं. ये विवाद शुरू हुआ कोरोना के कारण लॉकडाउन के बाद, जब राज्यपाल ने नियमित रूप से राज्य प्रशासन और पुलिस को लॉकडाउन को प्रभावी ढंग से लागू करने में उनकी “विफलताओं” के लिए खींच लिया. 15 अप्रैल, 2020 को उन्होंने ट्वीट किया, “#कोरोनावायरस को दूर करने के लिए लॉकडाउन प्रोटोकॉल को पूरी तरह से लागू करना होगा. पुलिस और प्रशासन @MamataOfficial 100% #SocialDistancing या धार्मिक सभाओं पर अंकुश लगाने में विफल…”

इसके बाद, सितंबर 2020 में विवाद ने एक नया मोड़ ले लिया, क्योंकि सीएम ने राज्यपाल को नौ पन्नों का एक पत्र लिखा, जिसमें तत्कालीन पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) वीरेंद्र द्वारा बंगाल में कानून और व्यवस्था को संभालने पर सवाल उठाने के लिए उनकी आलोचना की गई थी. धनखड़ ने राज्य के पुलिस प्रमुख पर कानून-व्यवस्था की स्थिति के बारे में उनके सवालों का “दो-पंक्ति” जवाब भेजने के लिए फटकार लगाई और उन्हें तलब किया. 

केजरीवाल और एलजी का विवाद

दिल्ली में भी गैर-बीजेपी सरकार है. यहां उप-राज्यपाल तो बदल रहे हैं, लेकिन सरकार के साथ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. नजीब जंग के बाद अब केजरीवाल का विवाद वीके सक्सेना के साथ है. अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि एलजी उनकी सरकार की महत्वपूर्ण योजनाओं की स्वीकृति में रोड़ा अटका रहे हैं तो वहीं एलजी का कहना है कि सरकार जनता के हित में काम नहीं कर रही है. एलजी इसको लेकर कई लेटर भी लिख चुके हैं. एलजी ये भी कह चुके हैं कि सीएम की तरह ही बाकी मंत्री भी उनकी बात नहीं सुनते हैं. अब हालात यह हैं कि एलजी ने दिल्ली सरकार की कई योजनाओं के लिए जांच समितियों का गठन कर दिया है.

राज्यपाल के अधिकार?

भारतीय संविधान 1949 में अनुच्छेद 157 कहता है कि कोई भी व्यक्ति राज्यपाल के रूप में नियुक्ति के लिए तब तक पात्र नहीं होगा जब तक कि वह भारत का नागरिक न हो और पैंतीस वर्ष की आयु पूरी न कर चुका हो. राज्यपाल राज्य का मुख्य कार्यकारी प्रमुख भी होता है, जो संबंधित राज्य के मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार अपना कार्य करता है. इसके अलावा, राज्यपाल की दोहरी भूमिका होती है, क्योंकि वह ‘केंद्र सरकार के एजेंट’ के रूप में भी कार्य करता है.

अनुच्छेद 153 के तहत प्रत्येक राज्य का राज्यपाल होगा. राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और इसका प्रयोग वह सीधे या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा. राज्य के राज्यपाल के पास कार्यकारी, विधायी, वित्तीय और न्यायिक शक्तियां होंगी, लेकिन उसके पास राजनयिक, सैन्य या आपातकालीन शक्तियां नहीं हैं जो भारत के राष्ट्रपति के पास हैं.

राज्यपाल की बड़ी शक्तियां

कार्यकारी शक्तियां

जैसा कि ऊपर कहा गया है कि कार्यकारी शक्तियां उन शक्तियों को संदर्भित करती हैं जो राज्यपाल के नाम पर मंत्रिपरिषद द्वारा प्रयोग की जाती हैं इसलिए राज्यपाल केवल नाममात्र का मुखिया होता है और मंत्रिपरिषद वास्तविक कार्यपालिका होती है. राज्यपाल, राष्ट्रपति को किसी राज्य में संवैधानिक आपातकाल लगाने की सिफारिश कर सकता है. किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन की अवधि के दौरान, राज्यपाल को राष्ट्रपति के एजेंट के रूप में व्यापक कार्यकारी शक्तियां प्राप्त होती हैं.

विधायी शक्तियां

जब धन विधेयक के अलावा कोई अन्य विधेयक राज्यपाल के समक्ष उनकी सहमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है, तो वह या तो विधेयक को अपनी सहमति देते हैं और या फिर विधेयक को सदनों के पुनर्विचार के लिए वापस भेज देते हैं. ऐसे में अगर सरकार दोबारा से विधेयक को राज्यपाल के पास भेजती है तो उन्हें उसे पारित करना होता है. 

वित्तीय शक्तियां

धन विधेयक केवल उनकी पूर्व सिफारिश पर राज्य विधानमंडल में पेश किया जा सकता है. उनकी सिफारिश के अलावा अनुदान की कोई मांग नहीं की जा सकती है. अप्रत्याशित व्यय को पूरा करने के लिए उनकी सिफारिश के बाद आकस्मिकता निधि से पैसा निकाला जा सकता है. राज्यपाल, नगर पालिका और पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए हर 5 साल में वित्त आयोग का गठन करता है. 

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